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कजाकी - मुंशी प्रेमचंद Hindi Story

कजाकी - मुंशी प्रेमचंद Hindi Story


मेरी बचपन की यादों में "कजाकी" एक न मिटने वाला व्यक्ति हैं। आज 40 वर्ष गुजर गए, कजाकी की मूर्ति अभी तक मेरी आँखों के सामने नाच रही है। मैं उस समय अपने पिताजी के साथ आजमगढ़ की एक तहसील में था। कजाकी जाती का पासी था, बड़ा ही हँसमुख, बड़ा ही जिंदादिल। वह रोज शाम को डाक का थैला लेकर आता, रात भर रहता और सुबह डाक लेकर चला जाता। 






शाम को फिर उधर से डाक लेकर आ जाता। मैं दिन भर उसकी राह देखा करता। ज्यों ही 4 बजते, बेचैन होकर सड़क पर आकर खड़ा हो जाता। वह दूर से दौड़ता हुआ आता दिखलाई पड़ता। वह सांवले रंग का गठीला, लंबा जवान था। जिस्म सांचे में ऐसा ढला हुआ की चतुर मूर्तिकार भी उसमे कोई दोष न निकाल सकता। उसकी छोटी-छोटी मुंछे उसके सुडोल शरीर पर बहुत अच्छी प्रतीत होती थी। 






मुझे देख कर वह और तेज दौड़ने लगता, उसकी झुुँझुनी और तेज से बजने लगती तथा मेरे दिल में जोर से ख़ुशी की धड़कन होने लगती। हर्षातिरेक में मैं भी दौड़ पड़ता और एक पल में कजाकी का कंधा मेरा सिंहासन बन जाता। वह जगह मेरी अभिलाषाओं का स्वर्ग थी। 




स्वर्ग के निवासियों को शायद वह आंदोलित आनंद नहीं मिलता होगा,जो मुझे कजाकी के विशाल कंधे पर मिलता था। दुनिया मेरी आँखों में तुच्छ हो जाती और कजाकी मुझे कंधे पर लिए हुए दौड़ने लगता, तब ऐसा महसूस होता, मानो मैं हवा के घोड़े पर उड़ा जा रहा हूँ। 





कजाकी डाकखाने में पहुँचता तो पसीने में तर-बतर रहता; लेकिन आराम करने की आदत नहीं थी। थैला रखते ही वह हम लोगों को लेकर किसी मैदान में निकल जाता, कभी हमारे साथ खेलता, कभी बिरहे गा कर सुनाता और कभी-कभी कहानियाँ सुनाता। उसे चोरी तथा डाके, मारपीट, भूत-प्रेत की सैंकड़ो कहानियाँ याद थी। मैं कहानियाँ सुनकर विचित्र आनंद में मग्न हो जाता; उसकी कहानियो के चोर, डाकू सच्चे योद्धा थे, जो धनी लोगो को लूटकर दीन-दुःखी प्राणियों का पालन करते थे। मुझे उन पर नफरत के बदले श्रद्धा होती थी। 





एक रोज कजाकी को थैला लेकर आने में देर हो गयी। सूर्यास्त हो गया और वह दिखलाई नहीं पड़ा। मैं खोया हुआ सा सड़क पर दूर तक नेत्र फाड़-फाड़ कर देखता था; पर वह परिचित  रेखा दिखलाई न पड़ती थी। कान लगाकर सुनता था; झुन-झुन की वह आमोदय ध्वनि सुनाई नहीं देती थी। प्रकाश के साथ मेरी उम्मीद भी मलिन हो जाती थी। उधर से किसी को आते देखता तो पूछता, "कजाकी आता हैं"? मगर या तो कोई सुनता ही नहीं या फिर सिर हिला देता था। 






अचानक झुन-झुन की आवाज कानों में आयी। मुझे अँधेरे में चारों ओर भुत ही दिखलाई देते थे। यहाँ तक की माताजी के कमरे में ताक पर रखी हुई मिठाई भी अँधेरे हो जाने के पश्चात मेरे लिए त्याज्य हो जाती थी; लेकिन वह आवाज सुनते ही मैं उसकी और जोर से दौड़ा। हाँ, कजाकी ही था। उसे देखते ही मेरी विकलता गुस्से में बदल गई। मैं उसे मारने लगा, फिर रूठ कर के अलग खड़ा हो गया। 


कजाकी ने हंसकर कहा, "मारोगे तो मैं जो लाया हूँ, वह न दूंगा"। 


मैंने साहस करके कहा, "जाओ मत देना, मैं लूंगा भी नहीं"। 


कजाकी, "अभी दिखा दूँ, तो फिर दौड़कर गोद में उठा लोगे"। 


मैंने पिघलकर कहा, "अच्छा, दिखा दो"। 


कजाकी, "तो आकर मेरे कंधे पर बैठ जाओ, भाग चलूँ। आज काफी देर हो गई हैं। बाबूजी काफी गुस्सा हो रहे होंगे"। 


मैंने अकड़कर कहा, "पहले दिखा तो दो"। 


मेरी विजय हुई। यदि कजाकी को देर न होती और वह एक मिनट भी और रुक सकता, तो पासा पलट जाता। उसने कोई चीज दिखाई, जिसे वह अपने एक हाथ से सीने से चिपकाए हुए था। लम्बा मुँह था, दो आँखे चमक रही थी। 






मैंने उसे भागकर कजाकी की गोद से ले लिया। यह हिरन का बच्चा था। आह! मेरी उस प्रसन्नता का कौन अनुमान करेगा? तब से कठिन परीक्षाएँ पास की, अच्छा पद भी पाया, रायबहादुर भी हुआ, पर वह ख़ुशी फिर से हासिल नहीं हुई। मैं उसे गोद में लिए, उसके कोमल स्पर्श का मजा उठाता हुआ घर की ओर दौड़ा। कजाकी को आने में क्यूँ इतनी देर हुई, इसका विचार ही न रहा। 







मैंने पूछा, "यह कहाँ पर मिला कजाकी"?  




कजाकी, "भैया यहाँ से थोड़ी दूरी पर एक छोटा सा वन हैं, उसमे बहुत से हिरन हैं। मेरा बहुत दिल चाहता था की कोई बच्चा मिल जाये तो तुम्हे दूँ। आज यह बच्चा हिरनों के झुण्ड के साथ दिखलाई दिया। मैं झुण्ड की तरफ दौड़ा तो वे बहुत दूर निकल गए, यही पीछे रह गया। मैंने इसे पकड़ लिया और इसी से इतनी देर हुई"। 





इस तरह बात करते हुए हम दोनों डाकखाने पहुंचे। बाबूजी ने मुझे न देखा, हिरन के बच्चे को भी न देखा, कजाकी पर ही उनकी दृष्टि पड़ी। बिगड़कर बोले, "आज इतनी देर कहाँ लगाई? अब थैला लेकर आया हैं, उसे लेकर मैं क्या करू? डाक तो चली गई। बता, तूने इतनी देर कहाँ पर लगाई"? 





कजाकी के मुख से आवाज न निकली। 




बाबूजी बोले, "तुझे शायद अब नौकरी नहीं करनी हैं। नीच हैं न, पेट भरा तो मोटा हो गया! जब भूखों मरने लगेगा तो नेत्र खुलेंगे"। 



कजाकी खामोश खड़ा रहा। 


बाबूजी का गुस्सा और बढ़ा। बोले, "अच्छा, थैला रख दे और अपने घर की राह ले। सूअर, अब डाक लेकर आया हैं। तेरा क्या बिगड़ेगा, जहाँ पर चाहेगा, मजूरी कर लेगा। माथ पर तो मेरे आएगी, उत्त्तर तो मुझे तलब होगा"।  



कजाकी ने रुआँसा होकर कहा, "हुजूर, अब कभी देर नहीं होगी"। 



बाबूजी, "आज क्यों देर की, इसका उत्तर दे"?



कजाकी के पास इसका कोई जवाब न था। आश्चर्य तो यह था की मेरी भी जवान बंद हो गई। बाबूजी बड़े क्रोधी थे। उन्हें काम करना पड़ता था, इसी बात से बात-बात पर झुंझला पड़ते थे। मैं तो उनके सम्मुख कभी जाता ही न था। वह भी मुझे कभी प्यार न करते थे। घर में सिर्फ 2 बार घंटे-घंटे भर के लिए भोजन करने आते थे, शेष सारे दिन दफ्तर में लिखा करते थे। उन्होंने बार-बार एक सहकारी के लिए अफसरों से प्रार्थना की थी, पर इसका कोई असर न हुआ था। यहाँ तक की छुट्टी के दिन भी बाबूजी दफ्तर में ही रहते थे। सिर्फ माताजी उनका गुस्सा शांत करना जानती थी। पर वह दफ्तर में कैसे आती? 



बेचारा कजाकी उसी समय देखते-देखते निकाल दिया गया। उसका बल्लम, चपरास और साफा छीन लिया गया और उसे डाकखाने से निकल जाने का नादिरी आदेश सुना दिया। आह! उस वक्त मेरा दिल चाहता था की मेरे पास सोने की लंका होती तो कजाकी को दे देता और बाबूजी को दिखा देता की तुम्हारे निकाल देने से कजाकी का बाल भी बांका नहीं हुआ। किसी योद्धा को अपनी तलवार पर जितना गर्व होता हैं, उतना ही गर्व कजाकी को अपनी चपरासी पर था। जब वह चपरासी खोलने लगा तो उसके हाथ काँप रहे थे और नेत्रों से आँसू बह रहे थे, और इस सारे उपद्रव की जड़ वह कोमल चीज थी, जो मेरी गोद में मुँह छिपाए ऐसे चैन से बैठी हुई थी मानो माता की गोद में हो। जब कजाकी चला तो मैं आहिस्ता-आहिस्ता उसके पीछे चला। मेरे घर के दरवाजे पर आकर कजाकी ने कहा , "भैया, अब घर जाओ। सांझ हो गई"। 




मैं खामोश खड़ा अपने आँसुओं के वेग को सारी ताकत से दूबा रहा था। कजाकी फिर बोला, "भैया, मैं कही बाहर थोड़े ही चला जाऊंगा, फिर आऊंगा तथा तुम्हे कंधे पर बैठाकर कुदाऊँगा, बाबूजी ने नौकरी ले ली तो क्या इतना भी न करने देंगे! तुमको छोड़कर मैं कहीं नहीं जाऊंगा, भैया! जाकर अम्मा से कह दो, कजाकी जाता हैं। उसका कहा-सुना क्षमा करे"। 



मैं दौड़ा हुआ घर गया , किन्तु अम्माजी से कुछ कहने के बदले बिलख-बिलखकर रोने लगा। अम्माजी रसोई से बाहर निकलकर पूछने लगी, "क्या हुआ बेटा? किसने मारा! बाबूजी ने कुछ कहा हैं? अच्छा; रह तो जाओ, आज घर आते हैं, पूछती हूँ। जब देखो, मेरे लड़के को मारा करते हैं। खामोश रहो बेटा, अब तुम उनके पास कभी न जाना"। 



मैंने बड़ी कठिनाई से आवाज संभालकर कहा, "कजाकी!" 



अम्मा ने समझा, कजाकी ने मारा हैं, कहने लगी, "अच्छा, आने दे कजाकी को, देखो, खड़े-खड़े निकलवा देती हूँ। हरकारा होकर मेरे राजा पुत्र को मारे! आज ही तो साफा, बल्लम, सब छिनवाये लेती हूँ। वाह!"



मैंने शीघ्रता से कहा, "नहीं, कजाकी ने नहीं मारा। बाबूजी ने उसे निकल दिया हैं। उसका साफा, बल्लम छीन लिया, चपरास भी ले ली।"



अम्मा, "यह तुम्हारे बाबूजी ने बहुत बुरा किया। वह बेचारा  अपने कार्य में इतना सतर्क रहता है, फिर उसे क्यों निकाला?"



मैंने बताया आज उसे देर हो गई थी।"



इतना कहकर हिरन के बच्चे को गोद से उतार दिया। घर में उसके भाग जाने का डर न था। अब तक अम्माजी की निगाह उस पर नहीं पड़ी थी। उसे फुदकते देखकर वह अचानक चौंक पड़ीं और लपककर मेरा हाथ पकड़ लिया  की कहीं यह भयानक जीव मुझे काट न खाए! मैं कहाँ तो फुट-फुटकर रो रहा था और कहाँ अम्मा की घबराहट देखकर खिलखिलाकर हँसने लगा। अम्मा, "अरे, यह तो हिरन का बच्चा हैं! कहाँ से मिला?"




मैंने हिरन के बच्चे का इतिहास और उसका भीषण अंजाम आदि से अंत तक कह सुनाया, "अम्मा, यह इतना तेज भागता था की कोई अन्य होता तो पकड़ ही न सकता। सन-सन हवा की तरह उड़ता चला जाता था। कजाकी 5-6 घंटे तक इसके पीछे दौड़ता रहा, तब कहीं जाकर बच्चा मिला। अम्माजी, कजाकी की भाँति कोई संसार भर में नहीं दौड़ सकता, इसी से तो देर हो गई। इसलिए बाबूजी ने बेचारे को निकाल दिया, चपरास, साफा, बल्लम, सब कुछ छीन लिया। अब बेचारा क्या करेगा? भूखों मर जायेगा।"


अम्मा ने पूछा, "कहाँ है कजाकी, जरा उसे बुलाकर तो लाओ"।



मैंने कहा, बाहर तो खड़ा हैं। कहता था, अम्माजी से मेरा कहा-सुना माफ़ करवा देना।"



अब तक अम्माजी मेरे हाल को मजाक समझ रही थी। शायद वह समझती थी की बाबूजी ने कजाकी को डाँटा होगा। मगर मेरा अंतिम वाक्य सुनकर संशय हुआ की वाकई कजाकी बर्खास्त तो नहीं कर दिया गया। बाहर आकर 'कजाकी! कजाकी' पुकारने लगी, किन्तु कजाकी का कहीं पता नहीं था। मैंने बार-बार पुकारा, मगर कजाकी वहाँ न था। 




भोजन तो मैंने खा लिया, बच्चे शोक में खाना नहीं छोड़ते, खासकर जब रबड़ी भी सामने हो। लेकिन बड़ी रात तक पड़े-पड़े सोचता रहा, मेरे पास रुपये होते तो एक लाख रुपये कजाकी को दे देता और कहता, बाबूजी से कभी नहीं बोलना। बेचारा भूखों मर जायेगा! देखु, कल आता हैं की नहीं। अब क्या करेगा आकर? लेकिन आने की तो कह गया हैं। मैं कल उसे अपने साथ खाना खिलाऊंगा। 




यही हवाई किले बनाते हुए मुझे नींद आ गई। 




दूसरे रोज मैं दिन भर अपने हिरन के बच्चे की  सेवा-सत्कार में व्यस्त रहा। पहले उसका नामकरण संस्कार हुआ और 'मुन्नू' नाम रखा गया, फिर मैंने उसका अपने सब दोस्तों और सहपाठियों से परिचय कराया। दिन भर में वह  मुझसे इतना हिल-मिल गया की मेरे पीछे-पीछे भागने लगा। इतनी ही देर में मैंने उसे अपनी ज़िन्दगी में एक महत्वपूर्ण स्थान दे दिया। अपने भविष्य में बनने वाले विशाल भवन में उसके लिए अलग कमरा बनाने का भी फैसला कर लिया; चारपाई, सैर करने की फ़िटन आदि की भी योजना बना ली। 




लेकिन शाम होते ही में सब कुछ छोड़-छाड़कर सड़क पर जा खड़ा हुआ और कजाकी की बाट देखने लगा। जानता था की कजाकी निकाल दिया गया हैं, अब उसे यहाँ आने की कोई आवश्यकता नहीं रही, फिर भी न जाने क्यूँ मुझे यह उम्मीद हो रही थी की वह आ रहा हैं। अचानक मुझे ख्याल आया की कजाकी भूखों मर रहा होगा। मैं फ़ौरन घर आया। अम्मा दीया-बत्ती कर रही थी। मैंने चुपके से एक टोकरी में आटा निकाला। आटा हाथों में लपेटे हुए टोकरी से गिरते हुए आटे की एक लकीर बनाता हुआ भागा। जाकर रास्ते पर खड़ा हुआ ही था की कजाकी सामने से आता दिखलाई दिया। उसके निकट बल्लम भी था, कमर में चपरास भी थी, सिर पर साफा बंधा हुआ था। बल्लम में डाक का थैला भी बंधा हुआ था। मैं भागकर उसकी कमर से चिपट गया और हैरान होकर बोला, "तुम्हे चपरास और बल्लम कहाँ से मिल गया कजाकी?"





कजाकी ने मुझे उठाकर कंधे पर बैठाते हुए कहा,"वह चपरास किस काम की थी भैया? वह तो गुलामी की चपरास थी, यह पुरानी प्रसन्नता की चपरास हैं। पहले सरकार का नौकर था, अब तुम्हारा सेवक हूँ"। 



यह कहते-कहते उसकी दृष्टि टोकरी पर पड़ी, जो वहीं रखी थी। बोला, "वह आटा कैसा हैं भैया?"


मैंने झिझकते हुए कहा, "तुम्हारे ही लिए ही तो लाया हूँ। तुम भूखे होगे, आज क्या खाया होगा"? 



कजाकी की आँखों में तो मैं नहीं देख सकता, उसके कंधे पर बैठा हुआ था। हाँ, उसकी आवाज से महसूस हुआ की उसका गला भर आया है। बोला, "भैया, क्या रूखी ही रोटियाँ खाऊँगा? दाल, नमक, घी और कुछ नहीं हैं"। मैं अपनी भूल पर काफी शर्मिंदा हुआ। सच तो हैं, बेचारा सूखी रोटियॉँ खाएगा? लेकिन नमक, दाल, घी कैसे लाऊ? अब तो अम्मा रसोई में होगी। आटा लेकर तो किसी तरह भाग आया था (अभी तक मुझे न पता था की मेरी चोरी पकड़ ली गयी हैं। आटे की लकीर ने सुराग दे दिया था।) अब ये तीन-तीन वस्तुएँ कैसे लाऊ? अम्मा से माँगूगा तो कभी न देगी। एक-एक पैसे के लिए तो घंटो रुलाती हैं, इतनी सारी वस्तुएँ क्यों देने लगी? एकाएक मुझे एक बात याद आई। मैंने अपनी पुस्तकों के बस्ते में कई आने पैसे रख छोड़े थे। मुझे पैसे इकट्ठा करके रखने में बड़ा आनंद आता था। मालूम नहीं अब वह आदत क्यों बदल गई! अब भी वहीं स्थिति रहती तो शायद इतना फाकेमस्त रहता।




 बाबूजी मुझे प्यार तो कभी नहीं करते थे पर पैसे खूब देते थे, शायद अपने कार्य में व्यस्त रहने के कारण, मुझसे पिंड छुड़ाने के लिए इसी नुस्खे को सबसे सरल समझते थे। इंकार करने में रोने और मचलने का भय था। इस  विघ्न को वह दूर से ही टाल देते थे। अम्माजी का स्वभाव इसके ठीक प्रतिकूल था। उन्हें मेरे रोने तथा मचलने से किसी काम में बाधा पड़ने का डर न था। आदमी लेटे-लेटे दिन भर रोना सुन सकता हैं, हिसाब लगाते हुए जोर की आवाज से ध्यान बँट जाता हैं। अम्मा मुझे प्रेम तो बहुत करती थी, पर पैसों का नाम सुनते ही उनकी त्योरियाँ बदल जाती थी। मेरे पास पुस्तकें न थी। हाँ, एक बस्ता था, जिसमे डाकखाने के दो-चार फार्म तह करके किताब के रूप में रखे हुए थे। मैंने सोचा - दाल, नमक और घी के लिए क्या उतने पैसे काफी नहीं होंगे? मेरी तो मुट्ठी में नहीं आते। यह तय करके मैंने कहा, "अच्छा, मुझे उतार दो, मैं दाल और नमक ला दूँ, लेकिन रोज आया करोगे न"?






कजाकी, "भैया, खाने को दोगे तो क्यों नहीं आऊंगा"।




मैंने कहा, "मैं प्रतिदिन खाने को दूंगा"।



कजाकी बोला, "तो मैं रोज आऊंगा"।  


मैं नीचे उतरा तथा दौड़कर सारी पूंजी उठा लाया। कजाकी को रोज बुलाने के लिए उस समय मेरे पास कोहिनूर हीरा भी होता तो उसकी भेंट करने में मुझे पसोपेश न होता। 


कजाकी ने आश्चर्यचकित होकर पूछा, "ये पैसे कहाँ से पाए भैया"? 


मैंने गर्वित होकर कहा, "मेरे ही तो हैं।"



कजाकी, "तुम्हारी अम्माजी तुमको मारेगी, कहेंगी, कजाकी ने बहलाकर मँगवा लिए होंगे। भैया, इन पैसों की मिठाई ले लेना तथा मटके में रख देना। मैं भूखों नहीं मरता। मेरे दो हाथ हैं। मैं भला कभी भूखों मर सकता हूँ?"



मैंने बहुत कहा की पैसे मेरे हैं, किन्तु कजाकी ने न लिए। उसने बड़ी देर तक इधर-उधर सैर कराई, गीत सुनाए और मुझे घर पहुंचाकर चला गया। मेरे दरवाजे पर आटे की टोकरी भी रख दी। 



मैंने घर में पग रखा ही था की अम्माजी ने डाँटकर कहा, "क्यों रे चोर! तू आटा कहाँ लेकर गया था? अब चोरी करना सीख गया? बता, किसको आटा दे आया, नहीं तो मैं तेरी खाल उधेड़कर रख दूंगी"?




अम्मा गुस्से में सिंहनी हो जाती थी। सिटपिटाकर बोला, "किसी को भी नहीं दिया"?




अम्मा, "तूने आटा नहीं निकाला? देख, कितना ही आटा पुरे आँगन में बिखरा पड़ा है"?




 मैं खामोश खड़ा था। वह कितना ही धमकाती थी, पुचकारती थी, पर मेरी जबान न खुलती थी। आने वाली मुसीबत के भय से प्राण सुख रहे थे। यहाँ तक की यह भी कहने की हिम्मत नहीं पड़ती थी की बिगड़ती क्यों हो, आटा तो द्वार पर रखा हुआ हैं, और न उठाकर लाते ही बनता था, मानो क्रिया-शक्ति ही गायब हो गई हो, मानो पाँव में हिलने का सामर्थ्य ही न रहा हो। 


सहसा कजाकी ने आवाज लगाई, "बहूजी, आटा द्वार पर रखा हुआ हैं। भैया मुझे देने को ले गए थे"। 



 यह सुनते ही अम्मा दरवाजे की ओर चली गई। कजाकी से वह पर्दा न करती थी, उन्होंने कजाकी से कोई बात की अथवा नहीं, यह तो मैं नहीं जानता; लेकिन अम्माजी खाली टोकरी लेकर घर में आई, फिर कोठरी में जाकर संदूक से कुछ निकाला और दरवाजे की और गई। 



मैंने देखा की उनकी मुट्ठी बंद थी। अब मुझे वहां खड़ा नहीं रहा गया। अम्माजी के पीछे-पीछे मैं भी गया। अम्मा ने दरवाजे पर कई बार पुकारा, मगर कजाकी वहां से चला गया था। 



मैंने बड़ी व्याकुलता से कहा, "मैं बुलाकर लाऊँ, अम्माजी?"  अम्माजी ने किवाड़ बंद करते हुए कहा, "तुम अंधेरे में कहाँ जाओगे, अभी तो यही खडा था। मैंने कहा की यही रहना मैं आती हूँ, तब तक न जाने कहाँ खिसक गया। बड़ा ही संकोची लड़का हैं, आटा तो लेता ही नहीं था। न जाने बेचारे के मकान में खाने को कुछ हैं या नहीं। रूपये लाई थी की दे दूंगी, पर न जाने कहाँ चला गया"। अब तो मुझ भी थोड़ा साहस हुआ। मैंने अपनी चोरी की पूरी कहानी कह डाली। बच्चों के साथ समझदार बच्चे बनकर माँ-बाप उन पर जितना प्रभाव डाल सकते हैं, जितनी शिक्षा दे सकते हैं, उतने बूढ़े बनकर नहीं। 




अम्माजी ने कहा, "तुमने मुझसे पूछ क्यों नहीं लिया? क्या मैं कजाकी को थोड़ा सा आटा नहीं देती?"




मैंने इसका जवाब नहीं दिया। दिल ने कहा, 'इस वक्त कजाकी पर दया आ रही हैं, जो चाहे दे डालो'। किन्तु मैं मांगता तो मारने को दौड़ती। हाँ, यह सोचकर चित्त खुश हुआ की अब कजाकी भूखा न मरेगा। अम्माजी उसे रोज खाने को देगी और वह नित्य मुझे कंधे पर बिठाए सैर कराएगा। 



दूसरे दिन मैं दिन भर मुन्नू के साथ खेलता रहा। शाम को सड़क पर  जाकर खड़ा हो गया, लेकिन अँधेरा हो गया और कजाकी का कहीं पता नहीं। 


दिये जल गए, मार्ग में सन्नाटा छा गया, पर कजाकी न आया। 


मैं रोता हुआ घर आया। अम्माजी ने कहा, "क्यों रोते हो बेटा? क्या कजाकी नहीं आया"?


मैं और जोर से रोने लगा। अम्माजी ने मुझे सीने से लगा लिया। मुझे ऐसा महसूस हुआ की उनका कंठ भी रुआँसा हो गया हैं। 


उन्होंने कहा, "बेटा, शांत हो जाओ, मैं कल किसी हरकारे को भेजकर कजाकी को बुलाऊंगी।"


मैं रोते-रोते सो गया। सबेरे जैसे ही आँखे खुली, मैंने अम्माजी से कहा, "कजाकी को बुलवा दो।"



अम्मा ने कहा, 'आदमी गया हैं, बेटा! कजाकी आता ही होगा।"


मैं प्रसन्न होकर खेलने लगा। मुझे पता था की अम्माजी जो बात कहती हैं, उसे पूरा अवश्य करती हैं। उन्होंने सवेरे ही किसी हरकारे को भेज दिया था। दस बजे जब मैं मुन्नू को लिए हुए घर आया, मालूम हुआ की कजाकी अपने घर पर नहीं मिला। वह रात को भी घर पर नहीं गया था। उसकी स्त्री रो रही थी की न जाने कहाँ पर चले गए। उसे डर था की वह कही भाग गया हैं। 



बालकों का मन कितना कोमल होता हैं, इसका अनुमान कोई दूसरा नहीं कर सकता। उनमें भावों को जाहिर करने के लिए शब्द नहीं होते। उन्हें यह भी ज्ञात नहीं होता की कौन सी बात उन्हें विकल कर रही हैं, कौन सा काँटा उनके दिल में खटक रहा है, क्यों बार-बार रोना आता हैं, क्यों वे ह्रदय मारे बैठे रहते है, क्यों खेलने में मन नहीं लगता? मेरी भी यही दशा थी। वह कहाँ चला गया? कहीं भाग तो नहीं गया? 




तीसरे पहर को मैं खोया हुआ सा सड़क पार कर रहा था। अचानक मैंने कजाकी को एक गली में देखा। हाँ, कजाकी ही था। मैं उसकी तरफ चिल्लाता हुआ दौड़ा, पर गली में उसका पता नहीं था, न जाने किधर गायब हो गया। मैंने गली के इस सिरे से उस सिरे तक देखा, लेकिन कही कजाकी की गंध तक न मिली। 


घर जाकर मैंने अम्माजी से यह बात कहीं। मुझे ऐसा प्रतीत हुआ की वह यह बात सुनकर बहुत फिक्रमंद हो गयी थी। 


इसके बाद दो-तीन दिन तक कजाकी दिखाई न दिया। मैं भी अब उसे कुछ-कुछ भूलने लगा। बच्चे पहले जितना प्रेम करते हैं, बाद में उतने ही निष्ठुर भी हो जाते हैं। जिस खिलोने पर जान देते हैं, उसी को दो-चार दिन बाद पटक कर तोड़ भी डालते हैं। 



दस-बारह रोज और बीत गए। दोपहर का समय था। बाबूजी खाना खा रहे थे। मैं मुन्नू के पावों में पीनस की पैजनियाँ बांध रहा था। एक औरत घूँघट निकाले हुए आई और आँगन में खड़ी हो गई। उसके वस्त्र फटे हुए और मैले थे पर गोरी सुन्दर औरत थी। उसने मुझसे पूछा, "भैया, बहूजी कहाँ हैं?"



मैंने उसके निकट जाकर मुँह देखते हुए कहा, "तुम कौन हो, क्या बेचती हो?"


औरत, "कुछ बेचती नहीं हूँ, बस तुम्हारे लिए ये कमलगट्टे लाई हूँ।"


भैया , तुम्हे तो कमलगट्टे बहुत अच्छे लगते हैं न?"


मैंने उसके हाथ में लटकती हुई पोटली को उत्सुक आँखों से देखकर पूछा, "कहाँ से लाई हो? देखे।"



स्त्री, "तुम्हारे हरकारे ने भेजा हैं, भैया!"


मैंने उछलकर कहा, "कजाकी ने?"


स्त्री ने सिर हिलाकर 'हाँ' कहा और पोटली खोलने लगी। इतने मैं अम्माजी भी चौके से निकलकर आई। उसने अम्मा के पैरों को स्पर्श किया। अम्मा ने पूछा, "तू कजाकी की पत्नी हैं?"


औरत ने अपना सिर झुका लिया। 


अम्मा, "आजकल कजाकी क्या कर रहा हैं?"


औरत ने रोककर कहा, "बहूजी, जिस रोज से आपके पास से आटा लेकर गए हैं, उसी दिन से बीमार पड़े हुए हैं। बस भैया-भैया किया करते हैं। भैया में उनका मन बसा रहता हैं। चौक-चौंककर भैया-भैया कहते हुए दरवाजे की और दौड़ते हैं। न जाने उन्हें क्या हो गया है, बहूजी! एक दिन कुछ नहीं कहा, न सुना, घर से चल दिए और एक गली में छिपकर भैया को देखते रहे। जिस समय भैया ने उन्हें देख लिया, तो भागे। तुम्हारे पास आते हुए शरमाते हैं।" मैंने कहा, "हाँ-हाँ, मैंने उस रोज तुमसे जो कहा था, अम्माजी!"



अम्मा, "घर में कुछ खाने-पीने को भी हैं'?



औरत, "हाँ बहूजी, तुम्हारे आशीर्वाद से खाने-पीने का कष्ट नहीं हैं। आज सुबह उठे और तालाब की तरफ चले गए। बहुत कहती रही, बाहर मत जाओ, हवा लग जाएगी, लेकिन न माने! मारे कमजोरी के पैर कांपने लगते हैं, मगर तालाब में घुसकर ये कमलगट्टे तोड़ लाए तब मुझसे कहा, ले जा, और भैया को दे आ। उन्हें कमलगट्टे बहुत अच्छे लगते हैं, कुशल-क्षेम पूछती आना।"



मैंने पोटली से कमलगट्टे निकाल लिए थे तथा मजे से चख रहा था। अम्मा ने बहुत आँखे दिखाई, किन्तु यहाँ इतना सब्र कहाँ!


अम्मा ने कहा, "कह देना सब कुशल-क्षेम हैं।"


मैंने कहा, "यह भी कह देना की भैया ने बुलाया हैं। नहीं जाओगे तो फिर तुमसे कभी न बोलेंगे, हाँ।"


बाबूजी खाना खाकर निकल आये थे। तोलिये से हाथ-मुँह पौछते हुए कहने लगे, "और यह भी कह देना की साहब ने तुमको बहाल कर दिया हैं। शीघ्र जाओ, नहीं तो कोई दूसरा व्यक्ति रख लिया जायेगा।"


औरत ने अपना वस्त्र उठाया और चली गई। अम्मा ने बहुत पुकारा, मगर वह न रुकी। शायद अम्माजी उसे कुछ देना चाहती थी। अम्मा ने पूछा, "वाकई बहाल हो गया?"


बाबूजी, "और क्या झूठे ही बुला रहा हूँ। मैंने तो पांचवे दिन ही बहाली की रिपोर्ट की थी।"


अम्मा, "यह आपने बड़ा अच्छा किया।"


बाबूजी, "उसकी बीमारी की भी यही दवा हैं।"



प्रातःकाल मैं उठा, तो क्या देखता हूँ की कजाकी लाठी टेकता हुआ चला आ रहा हैं। वह बहुत कमजोर हो गया था, मालूम होता था, बूढ़ा हो गया हैं। हरा-भरा वृक्ष सुखकर ठूँठ हो गया था। मैं उसकी और दौड़ा और उसकी कमर से चिपट गया। कजाकी ने मेरे गाल चूमे और मुझे उठाकर कंधे पर बैठने की कोशिश करने लगा; पर मैं न उठ सका। तब वह जानवरों की भाँति भूमि पर हाथों-घुटनों के बल खड़ा हो गया। और मैं उसकी पीठ पर सवार होकर डाकखाने की तरफ चला। मैं उस समय फुला न समाता था और शायद कजाकी मुझसे भी अधिक खुश था। 





बाबूजी ने कहा, "कजाकी, तुम बहाल हो गए। अब कभी देर मत करना।" कजाकी रोता हुआ पिताजी के कदमों में गिर पड़ा; मगर शायद मेरे भाग्य में दोनों का सुख भोगना नहीं लिखा था, मुन्नू मिला, तो कजाकी छूटा; कजाकी आया तो मुन्नू हाथ से गया और ऐसा गया की आज तक उसके जाने का कष्ट हैं। मुन्नू मेरी ही थाली में खाता था। जब तक मैं खाने न बैठूँ, वह भी कुछ नहीं खाता था। उसे भात में बहुत ही रूचि थी; किन्तु जब तक खूब घी न पड़ा हो उसे संतोष न होता था। वह मेरे ही साथ सोता था और मेरे ही साथ उठता भी था। सफाई तो उसे इतनी पसंद थी की मल-मूत्र त्याग करने के लिए घर से बाहर मैदान में ही निकल जाता था, कुत्तों को घर में घुसने नहीं देता था। कुत्ते को देखते ही थाली से उठ जाता तथा उन्हें दौड़ाकर घर से बाहर निकाल देता था। 




कजाकी को डाकखाने में छोड़कर जब मैं खाना खाने लगा तो मुन्नू भी आ बैठा। अभी दो-चार ही कौर खाए थे की तभी एक बड़ा सा झबरा कुत्ता आँगन में दिखाई दिया। मुन्नू उसे देखते ही भागा। दूसरे घर में जाकर कुत्ता चूहा हो जाता हैं। झबरा कुत्ता उसे आते देखकर दौड़ा। मुन्नू को शायद उसे घर से निकालकर इत्मीनान न हुआ। वह उसे घर से बाहर मैदान में भी दौड़ाने लगा। मुन्नू को शायद ध्यान न रहा की यहाँ मेरी अमलदारी नहीं हैं। वह उस इलाके में पहुंच गया था, जहाँ झबरे का भी उतना ही अधिकार था जितना मुन्नू का। मुन्नू कुत्ते को भगाते-भगाते शायद अपने बाहुबल पर गर्व करने लगा था। वह यह नहीं समझता था की घर में उसकी पीठ पर घर के स्वामी का भय कार्य करता हैं। झबरे ने इस मैदान में आते ही उलटकर मुन्नू की गर्दन दबा दी। बेचारे मुन्नू के मूख से आवाज तक न निकली। जब पड़ोसियों ने शोर मचाया तो मैं भागा। देखा तो मुन्नू मरा पड़ा  हुआ हैं और झबरे का कहीं भी पता नहीं हैं। 


 लेखक:  मुंशी प्रेमचंद


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