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तीन राजा - Three Kings Short Moral Stories in Hindi

 तीन राजा - 

Three Kings Short Moral Stories in Hindi




एक समय की बात हैं एक नगर में तीन राजा रहते थे। तीनो राजा साथ - साथ शासन चलाते थे, यह उनकी परंपरा थी की चाहे  कितने भी उत्तराधिकारी हो सभी साथ शासन करते। प्रातःकाल से अगली प्रातःकाल तक दरबार लगा रहता था। एक चुनाव के द्वारा उनके दरबार का समय तय किया जाता था, तथा उन तीनो राजाओं के मंत्रीगण, सिपाही और यहाँ तक की दास - दासियाँ सब अलग - अलग थे। राज्य एक था तथा  सिंघासन भी एक, परंतु राजा तीन और तीनो की कार्यप्रणाली भी अलग थी। कभी - कभी राज्य से सम्बन्धित कोई समस्या या समाधान में तीनो का एक मत या सहमति नहीं होती थी। ये तो सब  दूर की बात हैं, तीनो आपस में एक - दूसरे की सूरत देखना भी अच्छा नहीं समझते थे।  आस - पास के राज्यों के राजागण उनसे युद्ध करने की भी नहीं सोचते थे, उनको लगता था की आठों पहर दरबार लगता हैं तो वो हमेशा चौकन्ने रहते होंगे। 




पहला वाला संगीत प्रेमी था इसलिए वह संगीतकारों और नृत्यकारों को बढ़ावा देता और दूर - दूर के संगीतकारों को भी अपने राजमहल में आने का न्यौता भी देता था। दूसरा, विलाशी प्रवर्ती का था।  वह हमेशा कामवासना में लिप्त रहता और राज्य में जो भी सुन्दर कन्या दिखती उसे अपना बना लेता था।  तीसरा वाला, वीर योद्धा था। वह राज्य  को शत्रु से कैसे बचाया जाये और प्रजा को क्या चाहिए, इन सब का ख्याल रखता था। अच्छे घुड़सवार, वीर सैनिकों और हथियारों का जखीरा भारी मात्रा में अपने शस्त्रागार में रखता था। 




प्रजा पूर्ण रूप से संतुष्ट नहीं थी।  समय व्यतीत हो रहा था।  भीतर कुछ और था और बाहर कुछ और लेकिन असलियत कब तक छुप सकती थी, "एक न एक दिन परदे में आग लगनी ही थी" | एक दिन किसी राजा का  राजदूत अपनी कोई समस्या लेकर दरबार में उपस्थित हुआ, उसका आदर सत्कार तो खूब हुआ परन्तु काफी देर तक कोई कार्रवाई नहीं हुई, तो राजदूत को लगने लगा की कही उसे दंड देने की का कार्यक्रम तो नहीं हो रहा हैं।  उसने पुनः राजा से मिलने की इच्छा प्रकट की और एक दरबारी को राजदरबार में भेजा परन्तु उत्तर इस के विपरीत आया। वह फिर से दरबार लगने की प्रतीक्षा करने लगा राजदूत को लगा की आज शायद वक्त धीमा हो गया हैं, उसे जो चाहिए था वह मिले बिना उसे वह मिला गया। राजदूत समझ गया था की यहाँ दूरदर्शिता की कमी हैं, इन राजाओ को अपने राज्य और प्रजा से कोई लगाव नहीं हैं। राजदूत मौका देखकर और बिना बताये वहाँ से निकल  गया। तीसरा राजा यह सब देख रहा था, उसे लग रहा था की दाल में कुछ काला हैं परन्तु वह अभी विवश था, राजदूत को रोक पाने में।  फिर भी तीसरे राजा ने युद्ध की तैयारी शुरू कर दी। 





घनी रात्रि में अकस्मात्  एक  गुप्तचर ने आकर सुचना दी की हमारे राज्य के ऊपर आक्रमण होने वाला हैं। थोड़ी ही देर में शत्रु हमारे राज्य में प्रवेश कर जाएगा, जल्दी ही कुछ करना होगा। ऐसे मौके पर तीनो राजाओ की सहमति होना आवश्यक था जो की नामुमकिन था। अब संकट गहरा गया, देर करना उचित नहीं था। " सबसे अच्छी बात यह थी की तीनो राजाओ का राजगुरु एक ही था। राजगुरु ने तीनो को  क्रमनुसार समझाया की आज तीनो को एक मत होना चाहिए, भले ही अपने प्राणों की आहुति क्यों न देनी पड़े। तीनो राजा एकटक होकर राजगुरु को देख रहे थें। दूसरा राजा बोला की मेरे दरबार का समय समाप्त हो चूका हैं और अब में इस बारे में बात नहीं करना चाहता।  पहला राजा - मेरा तो दरबार का समय अभी  प्रारम्भ ही हुआ हैं और कुछ संगीतकार अपनी प्रस्तुति देंगे तो मैं नहीं जाऊंगा, मुझसे इस बारे में चर्चा नाही करे तो बेहतर होगा। तीसरा राजा - मैं रात भर जागा हूँ तो मैं किसी भी हालत में नहीं जा सकता। राजगुरु क्रोधित हो गए, " फिर शत्रु से कौन लड़ेगा " ? "तुम सब के सब स्वार्थी हो! तुम्हे पता हैं एक राजा का धर्म क्या होता हैं ? नहीं पता तो मैं बताता हूँ। अपने आप की और राज्य के साथ अपनी प्रजा की रक्षा करना ही तुम्हारा धर्म हैं"। भीत खड़े तीनो राजा बड़ी - बड़ी आंखों से राजगुरु को देख रहे थे। इतना सब होने पर भी कोई जवाब नहीं आया। क्रम से झकझोर कर समझाना चाहा पर बात नहीं बनी। अब आखरी उम्मीद थी तीसरा राजा। राजगुरु ने तीसरे राजा से कहाँ की "तुम इन दोनों के जैसे तो कतई नहीं हो, इनकी तरह  डरपोक, कायर, कामी, मैं जानता हूँ और अब तुम ही कुछ कर सकते हो"।  तीसरा राजा पहले से ही तैयारी कर के बैठा था। दोनों राजाओ के अपमान में बोले गए शब्द राजगुरु को भारी पड़े, राजगुरु को बंदी बना लिया गया और जाते - जाते उसने तीसरे राजा से कहा तुम! यहाँ के असली राजा हो तुम्हे जाना चाहिए। तीसरा राजा पूरे जोश में आ गया और कहा की राजगुरु मुझे आशीर्वाद दीजिए अगर मैं जीवित लौटा तो सबसे पहले आपको आजाद कराऊंगा, ये मेरी प्रतिज्ञा हैं और फिर राजा युद्ध के लिए रवाना हो गया।




 तीसरा राजा युद्ध स्थल पर जाते ही शत्रु पर टूट पड़ा। शत्रु इस बात से पूरी तरह से अनभिज्ञ था की उन पर आक्रमण हो सकता हैं। शत्रु के पैर उखड़ने लगे, शीघ्र ही तीसरे राजा ने विजय पताका  लहरा दी। राजा की जय - जयकार होने लगी उधर महल में दोनों  राजा अपने नित्यकर्म में व्यस्त  थे लेकिन अब कुछ और भी  बुरा होने वाला था। राज्य में प्रवेश करते ही राज्य की पूरी प्रजा तीसरे राजा के स्वागत में हाथ उठा कर आशीर्वाद दे रही थी। जयकारे गूंज रहे थे, ढोल - नगाड़ों की आवाज चारों और गूंज रही थी, दोनों राजा मूक बने यह सब देख रहे थे। तीसरे राजा के दरबार का समय भी हो चला, सारी प्रजा राजा के साथ थी। राजगुरु को कारागृह से आजाद कराया गया और पहले तथा दूसरे राजा को देश निकाला दे दिया गया। उस दिन सारी प्रजा ने घी के दीपक जलाए और चारो ओर शांति और अमन का  पहरा हो गया। ........समाप्त                                                                                                                                                                                                  

                                                                                                     लेखक: अशोक कुमार मच्या 



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