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भारतीय संविधान का 'अनुच्छेद 21' तथा इससे सम्बंधित महत्वपूर्ण केस | Article 21 in Hindi

भारतीय संविधान और राजव्यवस्था के इस लेख में हम संविधान के 'अनुच्छेद 21' (Article 21 in Hindi) के बारे में जानेंगे। इस लेख में Anuchchhed 21 Kya Hai?, इससे सम्बंधित महत्वपूर्ण मामले और उन मामलों में न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णयों तथा संसद द्वारा बनाये गए कानूनों आदि सभी के बारे में विस्तारपूर्वक जानकारी दी गई है। 


Article 21 in Hindi



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भारतीय संविधान का 'अनुच्छेद 21' - Article 21 in Hindi

 अनुच्छेद 21 के अनुसार "किसी व्यक्ति को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से केवल विधि के द्वारा स्थापित प्रक्रिया से ही वंचित किया जा सकता है अन्यथा नहीं"। 


अनुच्छेद 21 में 'जीवन' शब्द क्या है?

अनुच्छेद 21 में दिए गए जीवन शब्द को लेकर दो मत है -

  • पहला मत अनुच्छेद 21 के 'जीवन' शब्द का अर्थ सीमित रूप में लेता है अर्थात ये जीव वैज्ञानिकों द्वारा परिभाषित 'जीवन' को मानता है जिसके अनुसार जीवन का अर्थ केवल 'जीवित रहना' ही है और कुछ नहीं। 
  • वहीं दूसरा मत जीवन के व्यापक अर्थ अर्थात जीवन के दार्शनिक अर्थ को मानता है जिसके अनुसार जीवन शब्द में 'गरिमापूर्ण जीवन' निहित है। 


Anuchchhed 21 से सम्बंधित केस - Article 21 in Hindi

1. A.K गोपालन केस (1950) - AK Gopalan VS. State of Madras Case Judgement

A.K गोपालन केस में सर्वोच्च न्यायालय ने जीवन की सीमित व्याख्या की और जीवन का अर्थ केवल 'जीवित रहना माना। 


2. मेनका गाँधी केस (1978) - Maneka Gandhi VS Union of India Case Judgement

मेनका गाँधी केस में न्यायालय ने जीवन के अधिकार की व्यापक व्याख्या की। न्यायालय के अनुसार "जीवन का अर्थ केवल जीवित रहना नहीं है बल्कि मानवीय गरिमा के साथ जीवन जीना है। अतः जीवन के अधिकार में वे सभी अधिकार शामिल है जो मानवीय गरिमा से पूर्ण जीवन जीने के लिए जरूरी है। जीवन का अधिकार एक 'समेकित अधिकार' (Composite Right) है अर्थात यह अनेक अधिकारों का समूह है"। 


न्यायालय ने अलग-अलग मामलों में अनेक अधिकारों को जीवन के अधिकार के अंतर्गत मौलिक अधिकार का दर्जा दिया जैसे -

  • पासपोर्ट रखने का अधिकार 
  • विदेश यात्रा का अधिकार 
  • स्वच्छ पर्यावरण का अधिकार 
  • रोजी-रोटी का अधिकार 
  • निःशुल्क क़ानूनी सहायता पाने का अधिकार 
  • निद्रा का अधिकार 
  • निजता का अधिकार 
  • इच्छानुसार जीवन साथी चुनने का अधिकार 


3. M.C मेहता केस (2002) - M.C Mehta VS Union of India Case Judgement

M.C मेहता केस में न्यायालय ने 'स्वच्छ पर्यावरण' को एक मौलिक अधिकार माना क्योंकि मानवीय गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिए यह आवश्यक है। 


4. बाबा रामदेव VS. केंद्र सरकार (2011) - Ramlila Maidan Incident, 2011

इस केस में निद्रा को एक मौलिक अधिकार माना, क्योंकि गरिमापूर्ण जीवन के लिए यह आवश्यक है। 

5. पुट्टास्वामी केस (2017) - Puttaswamy VS Union of India Case Judgement

पुट्टास्वामी केस में न्यायालय ने 'निजता' (Privacy) को एक मौलिक अधिकार माना। पुट्टास्वामी कर्नाटक हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज थे और इन्होंने आधार अधिनियम के खिलाफ यह केस किया था। 

6. शक्ति वाहिनी केस (2018) - Shakti Vahini vs Union of India Case Judgement

इस केस में न्यायालय ने 'जीवनसाथी चुनने के अधिकार' को एक मौलिक अधिकार माना। 


अनुच्छेद 21 और समलैंगिकता का मुद्दा/IPC की धारा 377 का मुद्दा - Section 377 IPC in Hindi

IPC की धारा 377 का संबंध 'अप्राकृतिक यौन संबंध' से है और यह अप्राकृतिक यौन संबंध को अपराध घोषित करता है तथा इसमें 10 वर्ष या अधिक से लेकर आजीवन कारावास की सजा का प्रावधान है। 


अप्राकृतिक यौन संबंध क्या है? - What is Unnatural Sex?

अप्राकृतिक यौन संबंध में निम्नलिखित को शामिल किया गया है -

  • नाबालिग के साथ यौन संबंध बनाना 
  • पशु के साथ यौन संबंध बनाना 
  • समान लिंग के व्यक्ति के साथ यौन संबंध बनाना 


IPC की धारा 377 और समलैंगिकता से सम्बंधित केस 

1. नाज फाउंडेशन केस, 2009 - Naz Foundation VS Govt. of NCT of Delhi Judgement

नाज फाउंडेशन केस में दिल्ली हाईकोर्ट ने धारा 377 के समलैंगिकता से सम्बंधित प्रावधानों को रद्द कर दिया। आगे इस निर्णय को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। 


2. सुरेश कुमार कौशल केस, 2013 - Suresh Kumar Koushal vs. Naz Foundation Judgement

इस केस में सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली हाईकोर्ट के निर्णय को रद्द कर दिया और धारा 377 के समलैंगिकता संबंधी प्रावधानों को पुनः बहाल कर दिया। 


3. नवतेज सिंह जौहर केस, 2018 - Navtej Singh Johar vs Union of India Judgement

इस केस में सुप्रीम कोर्ट ने अपने पुराने निर्णय (सुरेश कुमार कौशल केस) को बदल दिया और IPC की धारा 377 के समलैंगिकता संबंधी प्रावधानों को रद्द कर दिया अर्थात न्यायालय ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया। इस निर्णय के पीछे सुप्रीम कोर्ट के निम्नलिखित तर्क थे -

  • IPC की धारा 377 भारत के संविधान में प्रदत्त समानता के मौलिक अधिकार के विरुद्ध है। 
  • नए वैज्ञानिक शोधों से यह सिद्ध हो रहा है की समलैंगिकता अप्राकृतिक नहीं है। कुछ व्यक्ति जन्म से ही भिन्न प्रकार की यौन अभिमुखता (Sexual Orientation) लेकर पैदा होता है। 
  • यह अनुच्छेद 21 के तहत गरिमापूर्ण मानवीय जीवन से कुछ व्यक्तियों को वंचित करता है। 
(पुट्टास्वामी केस में 'निजता का अधिकार' मौलिक अधिकार बना दिया गया था। जिसके तहत न्यायालय ने यह स्वीकार किया की यौन अभिमुखता भी निजता का अंग है।)


क्या अनुच्छेद 21 के 'जीवन के अधिकार' में मरने का अधिकार भी शामिल है? - Does Right to Life include Right to Die?

चलिए अब अनुच्छेद 21 से संबंधित एक अन्य महत्वपूर्ण सवाल की "क्या जीवन के अधिकार में मरने का अधिकार भी शामिल है या नहीं"? का उत्तर जानते है। इस सवाल के उत्तर को लेकर 2 मत है -

  • जीवन के अधिकार में 'केवल जीने का अधिकार' है क्योंकि जीवन-मृत्यु एक-दूसरे के विलोम है। 
  • दूसरा मत है की जीवन के अधिकार में मरने का अधिकार भी शामिल है क्योंकि व्यक्ति को अपने जीवन पर पूर्ण अधिकार है। 


1. पी. रतिनम केस, 1994 - P.Rathinam vs Union Of India Judgement 

इस केस में सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्धारित किया की जीवन के अधिकार में जीने का अधिकार व मरने का अधिकार दोनों शामिल है। अतः मरना भी एक मौलिक अधिकार है। इसके आधार पर भारतीय दंड संहिता की धारा 309 को शून्य घोषित कर दिया गया। 


IPC की धारा 309 के अनुसार आत्महत्या का प्रयास एक दंडनीय अपराध है।


2. ज्ञान कौर केस, 1996 - Gian Kaur vs The State Of Punjab 

इस केस में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने पिछले निर्णय (रतिनम केस के निर्णय) को बदल दिया और यह निर्धारित किया की जीवन के अधिकार में 'केवल जीने का अधिकार' शामिल है, मरना व्यक्ति का मौलिक अधिकार नहीं है। इस प्रकार IPC की धारा 309 को पुनः बहाल कर दिया गया। 



Mental Healthcare Act, 2017

आगे चलकर Mental Healthcare Act, 2017 के द्वारा संसद ने आत्महत्या के प्रयास को अपराध की श्रेणी से हटा दिया क्योंकि यह माना गया की यदि कोई व्यक्ति आत्महत्या जैसा बड़ा निर्णय ले रहा है तो इसमें निहित है की वह व्यक्ति मानसिक रूप से परेशानी का शिकार है और ऐसे में उसे सजा देने की बजाय उसका इलाज कराना ज्यादा बेहतर विकल्प है। 


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