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भारत के संविधान के अनुच्छेद 12 व 13 तथा इनसे सम्बंधित मामले

संविधान और राजव्यवस्था के इस लेख में हम भारत के संविधान के अनुच्छेद 12 (Article 12 of Indian Constitution in Hindi) तथा अनुच्छेद 13 (Article 13 of Indian Constitution in Hindi) के बारे में विस्तारपूर्वक जानेंगे। इसके साथ ही इन अनुच्छेदों से सम्बंधित कुछ मामलों जैसे शंकरी प्रसाद मामला, सज्जन सिंह मामला, गोलकनाथ मामला और सबसे महत्वपूर्ण केशवानंद भारती मामले के बारे में भी जानेंगे।

 

Article 13 of Indian Constitution in Hindi


Table of Content



भारत के संविधान का 'अनुच्छेद 12' - Article 12 of Indian Constitution in Hindi 

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 12 में 'राज्य' की परिभाषा दी गई है। राज्य में निम्नलिखित तत्वों को शामिल किया गया है -

  1. संघ की संसद (लोकसभा व राज्यसभा) और सरकार 
  2. प्रांत का विधानमंडल और सरकार 
  3. स्थानीय संस्थाएँ - पंचायत, नगरपालिका आदि। 
  4. ऐसे सभी व्यक्ति/संस्थाएँ जो सरकार की शक्तियों का प्रयोग करते है। 



भारत के संविधान का 'अनुच्छेद 13' - Article 13 of Indian Constitution in Hindi 

संविधान का अनुच्छेद 13 तीन खण्डों (Clause) में विभाजित है -

अनुच्छेद 13 (1)

संविधान लागू होने से पूर्व की ऐसी प्रत्येक विधि जो मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है, उल्लंघन की सीमा तक शून्य होगी। 


अनुच्छेद 13 (2)

राज्य ऐसी कोई विधि (law) नहीं बनाएगा जो मौलिक अधिकारों (Fundamental Rights) को कम या समाप्त करती हो और जिस सीमा तक कोई विधि मौलिक अधिकारों को कम या समाप्त करती है, उस सीमा तक वह विधि शून्य होगी। 


अनुच्छेद 13 (3)

उपरोक्त संदर्भों [13 (1), 13 (2)] में विधि के अंतर्गत अध्यादेश, परम्पराएँ, विधायिका द्वारा पारित विधि, नियम-उपनियम आदि शामिल माने जाएंगे। 


अनुच्छेद 13 की व्याख्या  

1. अनुच्छेद 13 (1) का संबंध संविधान लागू होने से पूर्व की विधियों से हैं। इसके आधार पर आच्छादन का सिद्धांत/ग्रहण का सिद्धांत (Doctrine of Eclipse) का विकास हुआ। इसके अनुसार संविधान पूर्व की कोई विधि मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है तो, वह विधि जिस सीमा तक मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है, उस सीमा तक मौलिक अधिकार उस विधि को आच्छादित कर देंगे (ग्रहण लगा देंगे) अर्थात उस सीमा तक वह विधि अप्रभावी हो जाएगी। यदि भविष्य में मौलिक अधिकारों में संशोधन या किसी अन्य कारण से वह विधि मौलिक अधिकारों के विरोधी नहीं रहती है तो आच्छादन समाप्त हो जाएगा और विधि पुनः प्रभावी हो जाएगी। 


2. अनुच्छेद 13 (2) का संबंध संविधान के लागू होने के पश्चात की विधियों से हैं, जहां राज्य पर यह रोक लगाई गई है कि राज्य मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाली कोई विधि नहीं बनाएगा। यदि राज्य ऐसी कोई विधि बनाएगा तो वह विधि शून्य होगी। 


मौलिक अधिकार संशाेधनीय है या नहीं? - Are Fundamental Rights Amendable? 

अनुच्छेद 13 से दो प्रश्नों पर विवाद उत्पन्न हुए -
  1. मौलिक अधिकार संशोधनीय (amendable) है या नहीं?
  2. संविधान संशोधन को अनुच्छेद 13 (2) के तहत 'विधि' के अंतर्गत शामिल किया जा सकता है या नहीं?

इन प्रश्नों पर भारतीय संसद और न्यायपालिका में बार-बार टकराव होता रहा है। इस संबंध में प्रमुख तथ्य कालक्रमिक रूप में इस प्रकार है -

1. शंकरी प्रसाद बनाम भारत सरकार केस (1951)

शंकरी प्रसाद मामले में 'प्रथम संविधान संशोधन अधिनियम' (1951) की वैधता को चुनौती दी गई। अपील करने वालों ने यह तर्क दिया कि अनुच्छेद 13 (2) के अनुसार राज्य कोई भी ऐसी विधि नहीं बन सकता जो संविधान के भाग 3 में दिए गए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन या सीमित करती हो। चूँकि संविधान संशोधन भी संविधान के अनुच्छेद 368 के अनुसार बनाई गई एक विधि ही है अतः यह भी अनुच्छेद 13 (2) में उल्लेखित 'विधि' की परिधि में शामिल होती है और इस दृष्टि से प्रथम संविधान संशोधन अधिनियम अवैध है। 


लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को खारिज करते हुए निर्धारित किया कि यदि अनुच्छेद 368 का प्रयोग करते हुए संविधान संशोधन अधिनियम पारित किया जाता है, तो वह अनुच्छेद 13 (2) के अधीन विधि नहीं माना जाएगा। अनुच्छेद 13 (2) में वर्णित विधि का आशय 'सामान्य विधि' से है, संविधान संशोधन अधिनियमों से नहीं इस प्रकार शंकरी प्रसाद मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह माना की संसद मौलिक अधिकारों में संशोधन कर सकती है। 


2. सज्जन सिंह बनाम राजस्थान सरकार मामला (1965)

इस मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने अपने पिछले निर्णय को ही दोहराया की संसद मौलिक अधिकारों में संशोधन कर सकती है। 

3. गोकलनाथ बनाम पंजाब सरकार मामला (1967)

इस मामले में '17वें संविधान संशोधन अधिनियम' की वैधता पर प्रश्न उठाया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने अपने पिछले निर्णय (शंकरी प्रसाद व सज्जन सिंह) को बदलते हुए नया फैसला किया की संसद को अनुच्छेद 368 के तहत भी यह अधिकार नहीं है की वह मूल अधिकारों का छीन सके या न्यून कर सके। 


इसके साथ ही न्यायालय ने भविष्यलक्षी अध्यारोपण का सिद्धांत (Doctrine of Prospective Overruling) दिया। इस सिद्धांत के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्धारित किया कि न्यायालय का निर्णय अतीतकालीन प्रभाव से लागू नहीं होगा बल्कि न्यायालय का निर्णय भविष्यलक्षी होगा तथा न्यायालय भविष्य में किए जाने वाले ऐसे संशोधनों को रद्द करेगा जो मौलिक अधिकारों को खत्म करते हैं या सीमित करते है। यदि अतीतकाल में ऐसा कोई संशोधन किया जा चुका है, वह संशोधन लागू रहेगा। 


किंतु तत्कालीन केंद्र सरकार तथा संसद को सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय अपने प्रतिकूल प्रतीत हुआ। इसलिए संसद ने 24वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1971 के द्वारा भाग 3 के अनुच्छेद 13 में एक और खंड 13 (4) जोड़ दियाअनुच्छेद 13 (4) के द्वारा यह निर्धारित किया गया की 13 (2) संविधान संशोधन पर लागू नहीं होगा अर्थात संविधान संशोधन के द्वारा मौलिक अधिकारों को समाप्त किया जा सकता है। 


4. केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य मामला (1973)

इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने 'मूल ढाँचे का सिद्धांत' (Doctrine of Basic Structure) प्रतिपादित किया। इसके द्वारा यह निर्धारित किया गया कि संसद संपूर्ण संविधान में संशोधन कर सकती है लेकिन संविधान के मूल ढांचे में संशोधन नहीं कर सकती। अतः वर्तमान स्थिति निम्नलिखित है -

  • संसद मौलिक अधिकारों में संशोधन कर सकती है। 
  • मौलिक अधिकारों में संशोधन सदैव विशेष बहुमत से ही किया जाएगा। 
  • यदि मौलिक अधिकारों में कोई मूल ढांचा पाया जाता है, तो उस मूल ढांचे में संशोधन नहीं होगा।

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