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धर्मसुधार एवं प्रतिधर्मसुधार आंदोलन का इतिहास - Reformation and Counter Reformation Movement In Hindi

मध्यकालीन यूरोपीय समाज पर धर्म का अत्यधिक प्रभाव था। मध्यकालीन यूरोपीय समाज धर्म केंद्रित, धर्म प्रेरित एवं धर्म नियंत्रित था। मनुष्य के जीवन पर जन्म से लेकर मृत्यु तक धर्म, पोप तथा चर्च का प्रभाव रहता था। इन धार्मिक बंधनों में जकड़े रहने के कारण मध्यकाल तक यूरोप कोई प्रगति नहीं कर पाया। 


किन्तु उत्तर मध्यकाल में परिस्थितियाँ बदलने लगी और यूरोप में एक आंदोलन जिसे "पुनर्जागरण" (Renaissance) कहा गया, शुरू हुआ। इस आंदोलन ने यूरोपीय लोगों में तर्क, वैज्ञानिक चेतना और मानवतावाद जैसे विचारों को जागृत किया। इस आंदोलन के साथ ही यूरोप में बदलाव की एक लहर शुरू हो गयी। इसी क्रम में एक बहुत ही महत्वपूर्ण आंदोलन "धर्मसुधार आंदोलन" (Reformation Movement In Hindi) की शुरूआत हुई। इस आंदोलन ने ईसाई धर्म को पूरी तरह से झकझोर दिया और आवश्यक बदलावों के लिए मजबूर किया।आज के इस लेख में हम इस धर्मसुधार आंदोलन के बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे। 


Reformation and Counter Reformation Movement In Hindi

Table of Content


धर्मसुधार आंदोलन की पृष्ठभूमि - Reformation and Counter Reformation Movement In Hindi

पुनर्जागरण से पूर्व यूरोपीय समाज चर्च के बंधनों में जकड़ा हुआ था। ईसाई चर्च का संगठित तंत्र रोम से संचालित होता था। चर्च के पादरियों को असीमित विशेषाधिकार प्राप्त थे और इन विशेषाधिकारों का न तो जनता और न ही राजा विरोध कर सकते थे। पोप के पास सम्राटों से भी अधिक अधिकार थे। वह किसी को भी सम्राट बना या सम्राट के पद से हटा सकता था। उत्तराधिकार, विवाह, तलाक तथा वसीयत आदि के मामलों पर अंतिम निर्णय पोप का होता था। 


परंतु पुनर्जागरण से यूरोप में धर्म व सामंतवाद और उनसे जुड़ी आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक तथा बौद्धिक मान्यताएँ टूटने लगी थी। टाइप मशीन और छापेखाने के आविष्कार से क्षेत्रीय भाषाओं तथा लेखकों को प्रोत्साहन मिला और अब "सत्य सत्ता की नहीं वरन, समय की पुत्री हो गई"। बौद्धिक चेतना से उत्पन्न एक नई चिंतन-धारा ने मजहबी अंधविश्वासो और कुप्रथाओं की जड़ को झकझोर दिया। वाणिज्य-व्यापर के प्रसार, मध्य वर्ग के उदय, तर्कवाद आदि सभी ने चर्च और ईसाईयत में सुधारवादी परिवर्तन आवश्यक कर दिए। 


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धर्मसुधार आंदोलन का अर्थ - Reformation Movement Meaning In Hindi

16वीं सदी में पुनर्जागरण से प्रभावित लोगों ने पोप की सांसारिकता व प्रभुत्व के विरुद्ध और चर्च की कुरीतियों, आडम्बरों, पाखंडों तथा शोषण को समाप्त करने के लिए जो आंदोलन आरंभ किया उसे धर्मसुधार आंदोलन (Reformation Movement) कहा जाता हैं। 



धर्मसुधार आंदोलन के कारण 

1. पुनर्जागरण का प्रभाव 

पुनर्जागरण ने यूरोपवासियों में स्वतंत्र चिंतन और तार्किक दृष्टिकोण का विकास किया। अब लोग जागृत हो गए थे और धर्म के आडंबरों, अंधविश्वासों में विश्वास नहीं करते थे। अब वे किसी धार्मिक मान्यता और परंपरा को स्वीकार करने से पहले अपने तर्क की कसौटी पर कसते थे। अब बाइबिल का भी देशी भाषाओं में अनुवाद किया जाने लगा जिसे पढ़कर लोग धर्म के सच्चे स्वरूप को समझने लगे, इससे अब धर्माधिकारी उन्हें यह कहकर मुर्ख नहीं बना सकते थे की बाइबिल में यह लिखा है।  


2. चर्च की दमनपूर्ण नीतियाँ 

चर्च के भीतर कई बुराइयाँ व्याप्त थी किन्तु चर्च अपने खिलाफ विरोध कभी सहन नहीं कर सकता था। अगर कोई व्यक्ति चर्च के पोप, पादरियों या फिर धर्माधिकारियों के भ्रष्ट कार्यों, अनैतिक कार्यों के विरुद्ध आवाज उठाता था, तो या तो उसे जिन्दा जला दिया जाता था या सूली पर चढ़ा दिया जाता था। चर्च ने कई धर्म सुधारकों और विचारकों को मौत के घाट उतार दिया था। चर्च की इन दमन नीतियों ने लोगों में विद्रोह की भावनाओं को बढ़ाने का काम किया। 


3. चर्च द्वारा लोगों का आर्थिक शोषण 

चर्च के पास कई विशेषाधिकार थे जिससे वह जनता का शोषण करता था। चर्च ने जनता पर कई प्रकार के धार्मिक कर लगा रखे थे। किसानों से कर वसूल करने के साथ ही बेकार भी करवाई जाती थी। इन शोषणकारी नीतियों के कारण जनता में असंतोष व्याप्त हो गया। 


4. पोप की विलासिता और सांसारिकता 

पोप, जोकि ईसाई धर्म का सर्वोच्च धर्माधिकारी था, अपने धार्मिक और नैतिक कर्तव्यों को भूलकर अनैतिक और विलासप्रिय जीवन व्यतीत करते थे। उनका नैतिक पतन हो चुका था। पोप एलेक्जेंडर षष्ट्म एक अत्यंत क्रूर, अनैतिक और चरित्रहीन व्यक्ति था। यद्यपि पोप विवाह नहीं कर सकते थे, परन्तु चर्च में रहने वाली भिक्षुणियों के साथ उनके अनैतिक सम्बन्ध हुआ करते थे। पोप की इस अनैतिकता और सांसारिकता के विरूद्ध सभी लोगों में तीव्र आक्रोश था। 


5. धर्माधिकारियों की नियुक्ति में भ्रष्टाचार 

धर्माधिकारियों की नियुक्ति योग्यता के आधार पर नहीं की जाती थी बल्कि धन देकर धनी लोग इन पदों को खरीद लेते थे। 

6. पोप का राजनीतिक कार्यों में हस्तक्षेप 

पोप के पास अत्यधिक विशेषाधिकार थे इस कारण वह राजनीतिक कार्यों में बहुत ज्यादा हस्तक्षेप किया करता था। वह कैथोलिक धर्म को मानने वाले किसी भी राजा को गद्दी पर बैठा सकता था, किसी भी राजा को गद्दी से हटा सकता था। उत्तराधिकार, विवाह, तलाक तथा वसीयत आदि सभी मामलों में पोप का निर्णय ही अंतिम निर्णय होता था। इससे राजा परेशान थे और राजनीतिक मामलों में पोप के अनुचित हस्तक्षेप को खत्म करना चाहते थे। 


7. राजाओं की महत्वकांक्षा 

यूरोपीय राजा बहुत महत्वकांक्षी थे। वे बिल्कुल नहीं चाहते थे की चर्च उनके मामलों में हस्तक्षेप करें। चर्च जनता से अपार धन एकत्रित कर उसे रोम भेज दिया करता थे, इससे राज्य या राजा को किसी भी प्रकार का कोई लाभ नहीं होता था। राजा, चर्च के न्यायालयों द्वारा जारी आदेश के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर सकता था। इस कारण से यूरोपीय राजाओं और चर्च के बीच मनमुटाव बना रहता था। 


8. मध्यवर्ग की महत्वकांक्षाएँ  

व्यापार में उन्नति से एक नए धनी व्यापारी वर्ग का उदय हुआ। यह नया धनी वर्ग चर्च के नियंत्रण से मुक्त होना चाहता था, क्योंकि चर्च वैभवपूर्ण जीवन का पक्षपाती नहीं था। चर्च के धनिक वर्ग के विरुद्ध होने के कारण धनिक वर्ग में असंतोष व्याप्त था। 


9. विभिन्न धर्म सुधारकों का योगदान 

मार्टिन लूथर से पहले भी कई धर्मसुधारकों ने चर्च के अनैतिक कार्यों के खिलाफ आवाज उठाई। जिनमें जॉन वाइक्लिफ, सेवोनारोला, इरैस्मस, जॉन हँस आदि धर्म सुधारक प्रमुख हैं। उन्होंने धर्म फैली हुई बुराइयों तथा धार्मिक, पाखंडों और आडम्बरों का विरोध किया और जनता को जागरूक करने का काम किया। इससे लोगों में चेतना जागृत हुई और वे धर्म के बंधनों को तोड़ने के लिए तैयार हुए। 


10. तात्कालिक कारण

धर्मसुधार आंदोलन की शुरुआत क्षमापत्रों(Apology Letters) की बिक्री का मार्टिन लूथर द्वारा विरोध करने से मानी जाती हैं। पोप लियो 10th ने क्षमापत्र बनवाये जिन्हे खरीद कर कोई भी ईसाई पापों से मुक्ति पा सकता था। इन्हे खरीदने वालो को बिना पश्चाताप (Confession) के पाप से मुक्ति की गारंटी दी जाती थी। 1517 ई. में जब मार्टिन लूथर ने जर्मनी में पादरी टेटजेल को इन पत्रों की बिक्री करते देखा तो इसका भारी विरोध किया। पोप ने लूथर को पंथ बहिष्कृत कर दिया। इस घटना से ही रोमन कैथोलिक पंथ के विरुद्ध आंदोलन प्रारंभ हो गया। 



धर्म सुधार आंदोलन के उद्देश्य 

  • रोम के पोप के विशेषाधिकारों की समाप्ति। 
  • ईसाई लोगों के नैतिक एवं आध्यात्मिक जीवन को उन्नत करना। 
  • पोप और धर्माधिकारियों के अनैतिक, भ्रष्ट और अधार्मिक जीवन में सुधार करना। 
  • धर्म में फैली हुई बुराइयों और भ्रष्टाचार को समाप्त करना। 
  • धर्म के वास्तविक और सच्चे स्वरूप को स्पष्ट करना। 


धर्मसुधार आंदोलन के परिणाम 

i. ईसाई मजहब का विभाजन 

धर्म सुधार आंदोलन से ईसाई धर्म 2 भागों - कैथोलिक तथा प्रोटेस्टेंट में विभाजित हो गया। प्रोटेस्टेंट संप्रदाय भी अनेक मतों में बँट गया, जैसे - काल्विनवाद, लूथरवाद तथा एंग्लिकनवाद आदि। इस प्रकार ईसाई धर्म की एकता को भारी आघात पहुँचा और वह नष्ट हो गई। 


ii. प्रतिधर्मसुधार आंदोलन की शुरुआत 

प्रोटेस्टेंट धर्म की बढ़ती लोकप्रियता के कारण कैथोलिक धर्म के अनुयायियों को चिंता हुई और उन्होंने कैथोलिक धर्म में कुछ आंतरिक सुधार करने का निश्चय किया ताकि कैथोलिक धर्म की पूर्व प्रतिष्ठा प्राप्त कर सके। इस कारण उन्होंने कैथोलिक धर्म में सुधार प्रक्रिया चलाई जिसे प्रतिधर्म सुधार आंदोलन के नाम से जाना गया। 


iii. राजाओं की शक्ति में वृद्धि 

धर्म सुधार आंदोलन का सबसे बड़ा परिणाम यह हुआ कि इससे राजाओं की शक्ति में वृद्धि हुई। इस आंदोलन के पश्चात जहां एक तरफ चर्च तथा पोप के प्रभाव में कमी आई और उनकी शक्ति क्षीण हो गई वहीं दूसरी तरफ चर्च के प्रभाव में कमी के कारण राजाओं की शक्ति तथा उनकी निरंकुशता में भी वृद्धि हुई। अनेक प्रोटेस्टेंट मत के समर्थक राजाओं ने अपने अपने राष्ट्रों में राष्ट्रीय चर्च की स्थापना कर दी जिसका सर्वोच्च अधिकारी स्वयं राजा हुआ करता था। 


iv. राष्ट्रीयता की भावना का विकास 

धर्म सुधार आंदोलन के फलस्वरूप अब ईश्वर के स्थान पर मनुष्य को, परलोक के स्थान पर इहलोक को व परंपराओं आदि के स्थान पर राष्ट्र को महत्व प्रदान किया जाने लगा। इससे लोगों में राष्ट्रीयता की भावना का विकास हुआ। 


v. साहित्य एवं भाषा के क्षेत्र में विकास 

धर्म सुधार आंदोलन के फलस्वरूप राष्ट्रीय भाषा और साहित्य को भी महत्वता प्रदान की जाने लगी। इससे पहले लैटिन और यूनानी भाषा में लिखित साहित्य को ही इज्जत की दृष्टि से देखा जाता था। अब बाइबिल का भी लोक भाषाओं में अनुवाद किया जाने लगा, इससे आम लोग भी बाइबिल के सच्चे स्वरूप से परिचित हो सके। 


vi. मजहबी गृह युद्धों की शुरुआत 

धर्म सुधार आंदोलन के कारण ईसाई धर्म दो भागों में विभाजित हो गया। इस विभाजन के कारण यूरोपीय राज्यों में गुटबंदी पनपी तथा यूरोपीय राज्यों के बीच परस्पर संघर्ष प्रारंभ हो गया। हॉलैंड में मजहबी युद्ध , फ्रांस में जिविंगली के समर्थकों ने मजहबी स्वतंत्रता हेतु युद्ध किया। जर्मनी के राज्यों में भी मजहब के नाम पर युद्ध हुए। 


vii. शिक्षा का प्रचार-प्रसार 

अब शिक्षा से धर्म का प्रभाव हट गया और अब प्रगतिशील तर्क आधारित, वैज्ञानिक दृष्टिकोण युक्त शिक्षा दी जाने लगी। 


viii. आर्थिक विकास और पूंजीवादी प्रवत्ति को प्रोत्साहन 

धर्मसुधार आंदोलन का प्रभाव न केवल सामाजिक, राजनीतिक बल्कि आर्थिक क्षेत्र पर भी पड़ा। इस आंदोलन के बाद चर्च की भूमि को कृषकों में वितरित किया गया, इससे राज्य के राजस्व में वृद्धि हुई। चर्च के बंधनों से मुक्त होकर व्यापारी पूँजी निवेश द्वारा व्यापार, वाणिज्य एवं उद्योग धंधों का विकास करने लगे। 



प्रमुख धर्म सुधारक 

I. मार्टिन लूथर (1483-1546 ई.)

लूथर एक प्रमुख धर्मसुधारक थे और इनके द्वारा क्षमापत्रों की बिक्री का विरोध किए जाने से ही रेफोर्मेंशन आंदोलन की शुरुआत मानी जाती हैं। लूथर ने 1520 ई. में अपनी 3 लघु पुस्तिका लिखी जिसमें पहली लघु पुस्तिका 'To the Christian Nobility of the German Nation' थी जिसमें उसने राज्य और चर्च के सम्बन्धों की व्याख्या की थी। दूसरी लघु पुस्तिका 'चर्च की बेबिलोनियाई कैद' में उसने ईसाई धर्म के संस्कारों का विरोध किया। तीसरी लघु पुस्तिका 'एक ईसाई व्यक्ति की मुक्ति' में उसने अपने विचार प्रकट किये की "मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति केवल ईश्वर की कृपा से ही प्राप्त हो सकती है, न की संस्कारों से।"


II. जॉन वाईक्लिफ (1320-1384 ई.)

इन्हे "The morning star of Reformation" कहा गया हैं। इनके अनुयायी "लोलार्ड्स" कहलाये।


III. जॉन हँस (1369-1415 ई.)

यह वाईक्लिफ के विचारों से प्रभावित था। इसने पोप का आदेश न मानने का आह्वान किया और चर्च की बुराइयों तथा पोप और पादरियों के अनैतिक और भ्रष्ट जीवन की कटु आलोचना की। चर्च की आलोचना से पोप बहुत नाराज हुआ और उसने जॉन हँस को जिंदा जलवा दिया।


IV. सेवानरोला (1452-1488 ई.)

पादरियों और चर्च की निंदा करने के कारण इसे भी ईसाई परिषद् ने मृत्युदंड दे दिया।


V. ज्विंग्ली (1484-1531)

स्विट्जरलैंड में प्रोटेस्टेंट धर्म के प्रसार में ज्विंग्ली ने महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने पोप की सर्वोच्च सत्ता मानने से इनकार कर दिया। ज्विंग्ली ने स्विट्जरलैंड में सुधारवादी चर्च की स्थापना की।


VI. कॉल्विन (1509-1564)

कॉल्विन ने "पूर्व में तय नियति" का सिद्धांत दिया। इसने "ईसाईयत की स्थापनाएँ" नामक एक पुस्तक की रचना भी की थी। कॉल्विन का प्रोस्टेंट धर्म के प्रति अत्यधिक उत्साह था, इसलिए उन्हें 'प्रोस्टेंट पोप' कहा जाता था। 



प्रतिधर्मसुधार आंदोलन - Counter Reformation Movement In Hindi

मार्टिन लूथर के विद्रोह करने से कैथोलिक चर्च के लिए बड़ी समस्या उत्पन्न हो गई। जब यूरोप में एक के बाद एक प्रोटेस्टेंट राज्य बनते जा रहे थे तो कैथोलिक चर्च को बचाने व प्रोटेस्टेंट आंदोलन को रोकने के लिए कुछ सुधारात्मक उपाय किए गए, ये सुधारात्मक उपाय धर्मसुधार आंदोलन की प्रतिक्रिया स्वरूप ही शुरू किए गए थे इसलिए इसे प्रतिधर्मसुधार आंदोलन (Counter Reformation Movement) कहा गया। 



FAQs

1. धर्मसुधार आंदोलन की शुरुआत कब हुई ?

Ans. 1517 ई. से इसकी शुरुआत मानी जाती हैं। 

2. धर्मसुधार आंदोलन के प्रमुख नेता कौन थे ?

Ans. जॉन वाईक्लिफ, मार्टिन लूथर, इरेस्मस, सेवानरोला, जॉन हँस आदि 

3. धर्मसुधार आंदोलन का जन्मदाता कौन हैं ?

Ans. मार्टिन लूथर 

4. एंग्लिकनवाद क्या हैं ?

Ans. ब्रिटेन का रेफोर्मेशन आंदोलन, एंग्लिकनवाद के नाम से जाना जाता हैं। 

5. मजहबी न्यायालय क्या हैं ?

Ans. प्रोटेस्टेंट आंदोलन की प्रगति को रोकने के लिए तथा मजहब विरोधियों को सजा देने के लिए इस  न्यायालय की स्थापना की गई। 

6. आक्सवर्ग स्वीकृति क्या हैं ?

Ans. 1530 ई. में आक्सवर्ग स्वीकृति द्वारा प्रोटेस्टेंट वाद को सैद्धांतिक स्वीकृति दी गई थी। 

7. आंग्सबर्ग की सन्धि कब हुई ?

Ans. 1555 ई.

8. सुधारवादी चर्च की स्थापना कब और  किसने की ?

Ans. 1525 ई. में ज्विंग्ली ने  


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